गुरुदेव ऋषि प्रवीण के स्वयं के गुरु कोई और नहीं बल्कि आचार्य श्री आनंद ऋषिजी (आनंद गुरुदेव) थे, जिन्हें स्नेहपूर्वक राष्ट्र संत के रूप में जाना जाता है — एक पूज्य जैन मुनि। उनके स्वर्गवास को 30 से अधिक वर्ष बीत चुके हैं, फिर भी वे अनगिनत हृदयों में आज भी बसे हुए हैं। उनके नाम "आनंद" का अर्थ ही है "प्रसन्नता", और उनका जीवन शुद्ध आनंद में जीने का प्रतीक था। उनकी स्मृति मात्र से आनंद की अनुभूति होती है।
स्नेह से उन्हें "बाबा" कहकर पुकारा जाता था, जिसका अर्थ होता है पिता, लेकिन उनके असीम स्नेह और निःस्वार्थ दृष्टिकोण को देखकर उन्हें "माऊली" (माँ जैसी ममता) कहना भी स्वाभाविक लगता है। वे प्रेम और अनुशासन के संतुलन के अद्भुत ज्ञाता थे, जिन्होंने अपने शिष्यों को सच्चे भाव से गढ़ा।
ज्ञान के प्रति उनकी जिज्ञासा असीम थी। 92 वर्ष की आयु में भी वे प्रतिदिन कुछ नया सीखते रहते थे और वर्षों पहले सीखे हुए श्लोकों को सहजता से स्मरण कर लेते थे। कृतज्ञता, विनम्रता और निःस्वार्थ प्रेम उनके स्वभाव का अभिन्न अंग थे।
मानवता का कल्याण ही उनके दिव्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य था। वे एक असाधारण दूरदर्शी और नेतृत्वकर्ता थे, जो अपने समय से बहुत आगे की सोच रखते थे। उनके विचार और कर्म आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने एक सदी पहले थे।
आचार्य आनंद ऋषिजी महाराज का जन्म 27 जुलाई 1900 (श्रावण शुक्ल 1, विक्रम संवत 1957) को चिंचोंडी शिराल, तालुका पाथर्डी, जिला अहिल्यानगर (महाराष्ट्र) में हुआ था। वे बाल्यकाल से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे और बचपन से ही धर्म की शिक्षा लेने लगे थे। मात्र 13 वर्ष की आयु में उन्होंने आचार्य रत्न ऋषिजी महाराज से दीक्षा ग्रहण की, जो 1927 में अलीपुर, महाराष्ट्र में समाधि को प्राप्त हुए।
13 वर्ष की आयु में नेमीचंदजी ने संन्यास लेने का निश्चय किया और 7 दिसंबर 1913 (मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी) को मिरी, अहिल्यानगर में दीक्षा ली। तब से वे आचार्य आनंद ऋषिजी महाराज के नाम से पहचाने जाने लगे।
उन्होंने पंडित राजधारी त्रिपाठी के सान्निध्य में संस्कृत और प्राकृत शास्त्रों का अध्ययन किया और 1920 में अहमदनगर में पहला प्रवचन दिया।
वे आचार्य रत्न ऋषिजी महाराज के साथ जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में सक्रिय रहे। 1927 में गुरु के समाधि लेने के बाद वे व्यथित हो गए, लेकिन उन्होंने अपने गुरु के संदेश "कभी दुखी मत हो, और सदैव मानव कल्याण के लिए कार्य करो" को जीवन का उद्देश्य बना लिया।
1931 में उनकी भेंट जैन धर्म दिवाकर चुथमलजी महाराज से हुई, जिन्होंने उनकी आचार्य बनने की क्षमता को पहचाना और इसे अपने अनुयायियों के समक्ष रखा।
आचार्य आनंद ऋषिजी महाराज ने कई धार्मिक और सामाजिक कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत की:
1974 में मुंबई में चातुर्मास करने के बाद वे पुणे पहुंचे। शनि वारवाड़ा में उनका भव्य स्वागत हुआ। 13 फरवरी 1975 (माघ शुक्ल द्वितीया) को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक ने उन्हें "राष्ट्र संत" की उपाधि से सम्मानित किया।
आचार्य आनंद ऋषिजी महाराज के पैर के मध्य में "पद्म" चिह्न था, जिसे वे केवल उन्हीं भक्तों को दिखाते थे, जो किसी बुरी आदत को छोड़ने या आजीवन किसी व्रत का पालन करने की प्रतिज्ञा करते थे।
उन्होंने कई शैक्षणिक और चिकित्सा संस्थानों की स्थापना की:
ये संस्थान अहिल्यानगर (अहमदनगर) में स्थित हैं और उनके नाम पर समर्पित हैं।
आचार्य आनंद ऋषिजी महाराज का जीवन धर्म, शिक्षा और मानव सेवा का अद्भुत उदाहरण है। उनका योगदान जैन धर्म और समाज कल्याण के क्षेत्र में अमर रहेगा।
| दीक्षा से पूर्व नाम | श्री नेमीचंद गुगलिया |
|---|---|
| जन्म तिथि | श्रावण शुक्ल एकम, विक्रम संवत 1957 (24 जुलाई 1900) |
| जन्म स्थान | सिराल चिंचोंडी, अहमदनगर, महाराष्ट्र |
| पिता का नाम | श्री देवीचंदजी |
| माता का नाम | श्रीमती हलसा देवी |
| संप्रदाय | श्वेतांबर |
| उपसंप्रदाय | स्थानकवासी |
| दीक्षा तिथि | मार्गशीर्ष सुदी नवमी, विक्रम संवत 1970 |
| दीक्षा स्थल | मिरी, महाराष्ट्र |
| गुरु | श्री रत्न ऋषिजी म.सा. |
| दादा गुरु | कवी कुलभूषण श्री तिलक ऋषिजी म.सा. |
| गुरुनी | महासती श्री रामकुंवरजी म.सा. |
| आचार्य पद | विक्रम संवत 1989, माघ कृष्ण नवमी, पाथर्डी, महाराष्ट्र |
| आचार्य सम्राट पद | फाल्गुन शुक्ल एकादशी, विक्रम संवत 2001, अजमेर साधु सम्मेलन |
| ज्ञात भाषाएं | ग्यारह |
| आंदोलन एवं जनहित योजनाएं: |
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